वक़ार-ए-शाह-ए-ज़विल-इक्तदार देख चुके
वक़ार-ए-शाह-ए-ज़विल-इक्तदार देख चुके
ज़ुहूर-ए-क़ुदरत-ए-परवरदिगार देख चुके
नक़ाब खोल के रू-ए-निगार देख चुके
कुछ एक बार नहीं लाख बार देख चुके
जहाँ के ऐश-ओ-ग़म-ए-रोज़गार देख चुके
जो देखता था सो पर्वरदिगार देख चुके
वो जीते-जी हुए ईज़ा से नज़'अ की आगाह
जो सदमे तेरे शब-ए-इंतिज़ार देख चुके
ख़ुदा के वास्ते अब छोड़ जिस्म-ए-ख़ाकी को
अज़िय्यतें बहुत ओ जान-ए-ज़ार देख चुके
जुनूँ ने ख़ूब दिखाई बहार-ए-जेब-ओ-कनार
हवा में उड़ते हुए तार तार देख चुके
वो क़ौल ग़ैर को देते हैं लेते हैं इक़रार
तिरी तरफ़ को दिल-ए-बे-क़रार देख चुके
यक़ीं है अब न करें मेरे क़त्ल में ताख़ीर
फ़साँ चटा के वो ख़ंजर की धार देख चुके
न डाल पेच में ख़ातिर न अब परेशाँ कर
बहुत से दर्द-ए-सर ओ ज़ुल्फ़-ए-यार देख चुके
करे वो ज़ीनत-ए-फ़ितराक या हलाल करे
कहीं इधर को भी वो शहसवार देख चुके
न पहुँचा एक भी ज़र्रा तुम्हारे दामन तक
उड़ा के ख़ाक भी हम ख़ाकसार देख चुके
हुए सफ़ेद-ओ-सियाह-ए-जहान से वाक़िफ़
बहुत सी गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार देख चुके
किए हैं ख़ूब से नज़्ज़ारे बाग़-ए-हस्ती के
जहाँ को बस मिरे पर्वरदिगार देख चुके
इलाही तू ने शरफ़ जिस को आसमाँ पे दिया
वो सर-ज़मीन भी ये ख़ाकसार देख चुके
नहीं है एक में हिम्मत ये वो ज़माना है
ग़रीब देख चुके माल-दार देख चुके
तही है नश्शा-ए-उल्फ़त से ये ख़ुम-ए-गर्दूं
शराबें पी के तिरे बादा-ख़्वार देख चुके
कुलाह-ए-कज को हटा कर दिखा दिया अबरू
क़सम अली की खिंची ज़ुल-फ़िक़ार देख चुके
भला वो ख़ाक करें क़स्द बज़्म-ए-हस्ती का
जो लोग राहत-ए-कुंज-मज़ार देख चुके
हुआ यक़ीन फ़रिश्तों को ख़ाकसारी का
कफ़न लिखा जो ये ख़त्त-ए-ग़ुबार देख चुके
अमामे-बाज़ जो ये कंठे घट्टे वाले हैं
जहाँ में जैसे हैं ज़ी-ए'तिबार देख चुके
अठाई-गीरे हैं सब जाल-साज़ हैं मुफ़सिद
कुछ एक दो नहीं हम तो हज़ार देख चुके
सिवाए ज़ात-ए-ख़ुदा सब के वास्ते है फ़ना
सबात-ए-हस्ती-ए-ना-पाएदार देख चुके
क़ुसूर-ए-बख़्त है फिर जाएँ अब अगर महरूम
दर-ए-करीम तो उम्मीद-वार देख चुके
हज़ार-शुक्र कि बाक़ी नहीं कोई हसरत
बहार तेरी भी ओ गुल-एज़ार देख चुके
नजफ़ को ले गए मय्यत फ़रिश्ता-ए-नक़्क़ाल
अज़ीज़ खोल के मेरा मज़ार देख चुके
फ़क़ीर भी मुतरस्सिद निगाह-ए-लुत्फ़ का है
इधर भी 'रिन्द' मिरा शहरयार देख चुके
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