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क़ब्र पर होवें दो न चार दरख़्त - रिन्द लखनवी कविता - Darsaal

क़ब्र पर होवें दो न चार दरख़्त

क़ब्र पर होवें दो न चार दरख़्त

एक काफ़ी है साया-दार दरख़्त

था मैं दीवाना गोर पर है ज़रूर

बेद-ए-मजनूँ का साया-दार दरख़्त

हों वो बद-बख़्त मेरे साए से

ख़ुश्क होते हैं बार-दार दरख़्त

तू जो ऐ सर्व बाग़ में जाए

समर ओ गुल करें निसार दरख़्त

पस्त हों तुझ से ग़ैरत-ए-तूबा

एक क्या हों अगर हज़ार दरख़्त

वाह-रे मेरे आह के झोंके

उड़ते फिरते हैं काह-वार दरख़्त

मैं जो तासीर-ए-आह दिखलाऊँ

कोह हिल जाएँ दरकिनार दरख़्त

बाग़-ए-हस्ती में ज़ोफ़-ए-पीरी से

'रिन्द' हूँ मिस्ल-ए-बीख़-ख़ार दरख़्त

बाग़बाँ क्यूँ न जाने इस को फ़ुज़ूल

कर चुके अपनी जब बहार दरख़्त

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In Hindi By Famous Poet Rind Lakhnavi. is written by Rind Lakhnavi. Complete Poem in Hindi by Rind Lakhnavi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.