नीस्त बे-यार मुझ को हस्ती है
नीस्त बे-यार मुझ को हस्ती है
शहर-ए-वीराँ उजाड़ बस्ती है
है जहाँ पर मिरा क़दम भारी
हर क़दम पर ज़मीन धँसती है
वो परी साथ ले के सोता हूँ
हूर जिस का पलंग कसती है
है हक़ीक़त मजाज़ से मतलूब
बुत-परस्ती ख़ुदा-परस्ती है
उस के कुश्ते हैं ज़िंदा-ए-जावेद
नीस्ती उन की ऐन हस्ती है
एक बुत ने दिया न हम को जवाब
बे-ज़बानों की हिन्द बस्ती है
ख़ाकसारों की है यही मेराज
सर-बुलंदी हमारी पस्ती है
है कई दिन से घात में सय्याद
अंदलीब आज-कल में फॅंसती है
इस मुरक़्क़ा की देख तस्वीरें
कोई रोती है कोई हँसती है
मंज़िल-ए-इश्क़ की है रह हमवार
न बुलंदी है याँ न पस्ती है
हुस्न दिखला रहा है क़ुदरत-ए-हक़
बुत को भी ज़ौक़-ए-ख़ुद-परस्ती है
जाँ भी दे कर मिले तो मुफ़्त समझ
हर तरह जिंस-ए-हुस्न सस्ती है
ज़ुल्फ़ उस की सियाह नागिन है
मार रखती है जिस को डसती है
खुलेंगी आँखें नश्शा उतरेगा
हुस्न तक ऊपरी ये मस्ती है
ऐसे जीने पे 'रिन्द' ख़ाक पड़े
मौत उस ज़िंदगी पे हँसती है
(478) Peoples Rate This