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क्यूँ अंधेरों का मुसाफ़िर है मुक़द्दर अपना - रिफ़अतुल क़ासमी कविता - Darsaal

क्यूँ अंधेरों का मुसाफ़िर है मुक़द्दर अपना

क्यूँ अंधेरों का मुसाफ़िर है मुक़द्दर अपना

कोई सूरज तो निकाले ये समुंदर अपना

ज़ुल्मत-ए-शब में जलाए हुए अश्कों के चराग़

इश्क़ की राह में ख़ुद इश्क़ है रहबर अपना

क्या लगाएगा कोई मेरी अना की क़ीमत

दोनों आलम से गिराँ-तर है ये जौहर अपना

कोई चेहरा तो कहीं हो तिरे चेहरे की तरह

शहर-ए-ख़ूबाँ में नहीं एक भी मंज़र अपना

दिल में रौशन है तिरा दर्द ज़माने से निहाँ

क्या सदफ़ ने भी दिखाया कभी गौहर अपना

उस के लब-ख़ंद में ढल जाए ख़िज़ाँ का मौसम

उस को गुलनार करें ज़ख़्म दिखा कर अपना

अंजुमन गोश-बर-आवाज़ है 'रिफ़अत' देखें

किस के सीने में उतरता है ये नश्तर अपना

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In Hindi By Famous Poet Rifat-ul-Qasmi. is written by Rifat-ul-Qasmi. Complete Poem in Hindi by Rifat-ul-Qasmi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.