मसर्रतों का खिला है हर एक सम्त चमन
मसर्रतों का खिला है हर एक सम्त चमन
मगर ये दिल कि है फिर भी क़तील-ए-रंज-ओ-मेहन
बड़े सुकून से ज़ुल्फ़ें सँवारने वाले
किसी की ज़ीस्त न बन जाए मुस्तक़िल उलझन
मिरे जुनूँ पे रहे लोग मो'तरिज़ लेकिन
न देखे आह किसी ने तिरे ख़ुतूत-ए-बदन
अभी तो हर्फ़-ए-तमन्ना का ज़िक्र तक भी नहीं
अभी न डाल ख़ुदा के लिए जबीं पे शिकन
दिल-ए-फ़सुर्दा में यूँ तेरी याद आई है
शब-ए-सियाह में जिस तरह रौशनी की किरन
ये किस ने झूम के मस्ती में ली है अंगड़ाई
फ़ुसूँ-तराज़ है ये किस का रंग-ए-पैराहन
गुज़र गया है ज़माना मगर मुझे 'रिफ़अत'
है अब भी याद किसी की निगाह-ए-तौबा-ए-शिकन
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