फिर फ़िक्र-ए-सुख़न मैं कर रहा हूँ
फिर फ़िक्र-ए-सुख़न मैं कर रहा हूँ
अफ़्लाक से मैं गुज़र रहा हूँ
लफ़्ज़ों के खिला रहा हूँ ग़ुंचे
ज़ुल्मत में सितारे भर रहा हूँ
ये शम्स-ओ-क़मर हैं देखे-भाले
इन सब का मैं हम-सफ़र रहा हूँ
मिट्टी से जनम जनम का रिश्ता
धरती का सिंगार कर रहा हूँ
जन्नत मिरी फ़िक्र की है मेराज
दोज़ख़ से तो मैं गुज़र रहा हूँ
दुनिया के क़सीदे मैं ने लिखे
बस अपना ही नौहागर रहा हूँ
सब की है ख़बर 'सरोश' लेकिन
मैं ख़ुद से ही बे-ख़बर रहा हूँ
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