इन्ही सुब्हों में वो इक सुब्ह-ए-नवा याद करो
इन्ही सुब्हों में वो इक सुब्ह-ए-नवा याद करो
फूल खिलने की दुआ है तो दुआ याद करो
इक तो बारिश के उतरने की थी अपनी आवाज़
इक वो कुछ और थी पत्तों की सदा याद करो
अब वो रुत है कि दरीचों में न हम हैं न चराग़
कितने अतराफ़ से आती थी हवा याद करो
अब तो इस ख़्वाब की ख़ुशबू भी कहीं हो कि न हो
हम वो किस मौज में थे चश्म-ए-कुशा याद करो
सुब्ह होने की है मिन्नत तो वो मानो 'रिफ़अत'
फूल खिलने की दुआ है तो दुआ याद करो
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