इसी हुजूम में लड़-भिड़ के ज़िंदगी कर लो
रहा न जाएगा दुनिया से दूर जा कर भी
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Faiz Ahmad Faiz
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बदल सका न जुदाई के ग़म उठा कर भी
जो सैल-ए-दर्द उठा था वो जान छोड़ गया
सिमटती फैलती तन्हाई सोते जागते दर्द
मुसाफ़िरत के तहय्युर से कट के कब आए
बजा है हम ज़रूरत से ज़ियादा चाहते हैं
हम फ़लक के आदमी थे साकिनान-ए-क़र्या-ए-महताब थे
आँच आएगी न अंदर की ज़बाँ तक ऐ दिल
वक़्त ख़ुश-ख़ुश काटने का मशवरा देते हुए
छुपे हुए थे जो नक़्द-ए-शुऊ'र के डर से
सत्ह-बीं थे सब, रहे बाहर की काई देखते
किसी भी तौर तबीअ'त कहाँ सँभलने की
मासूम ख़्वाहिशों की पशीमानियों में था