इक घर बना के कितने झमेलों में फँस गए
कितना सुकून बे-सर-ओ-सामानियों में था
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हम फ़लक के आदमी थे साकिनान-ए-क़र्या-ए-महताब थे
बजा है हम ज़रूरत से ज़ियादा चाहते हैं
किसी भी तौर तबीअ'त कहाँ सँभलने की
वो दिल कि था कभी सरसब्ज़ खेतियों की तरह
अंदेशा-हा-ए-दूर-दराज़
वक़्त ख़ुश-ख़ुश काटने का मशवरा देते हुए
रात दिन महबूस अपने ज़ाहिरी पैकर में हूँ
इसी हुजूम में लड़-भिड़ के ज़िंदगी कर लो
सिमटती फैलती तन्हाई सोते जागते दर्द
दर्द ग़ज़ल में ढलने से कतराता है
मासूम ख़्वाहिशों की पशीमानियों में था