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सत्‌ह-बीं थे सब, रहे बाहर की काई देखते - रियाज़ मजीद कविता - Darsaal

सत्‌ह-बीं थे सब, रहे बाहर की काई देखते

सत्‌ह-बीं थे सब, रहे बाहर की काई देखते

लोग कैसे मेरे अंदर की सफ़ाई देखते

उस से मिलने का निशाँ तक भी नज़र आता नहीं

एक मुद्दत हो गई राह-ए-जुदाई देखते

हम तो अपनी वुसअत-ए-दिल से भी कोसों दूर थे

तेरे दिल तक किस तरह अपनी रसाई देखते

आप ही थक-हार कर अपने को बेहिस कर लिया

ज़िंदगी कब तक तिरी बे-ए'तिनाई देखते

यूँ न खो जाते फ़ज़ा-ए-यास में दुनिया के साथ

काश अपना ही लब-ओ-लहजा रजाई देखते

दिल की मजबूरी से बढ़ कर कोई मजबूरी न थी

हम भी कुछ करते अगर ख़ुद से रिहाई देखते

काश धरती पर गिरा ख़ूँ रंग ले आता 'रियाज़'

जीते-जी हम अपनी फ़सलों की कटाई देखते

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In Hindi By Famous Poet Riaz Majeed. is written by Riaz Majeed. Complete Poem in Hindi by Riaz Majeed. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.