सत्ह-बीं थे सब, रहे बाहर की काई देखते
सत्ह-बीं थे सब, रहे बाहर की काई देखते
लोग कैसे मेरे अंदर की सफ़ाई देखते
उस से मिलने का निशाँ तक भी नज़र आता नहीं
एक मुद्दत हो गई राह-ए-जुदाई देखते
हम तो अपनी वुसअत-ए-दिल से भी कोसों दूर थे
तेरे दिल तक किस तरह अपनी रसाई देखते
आप ही थक-हार कर अपने को बेहिस कर लिया
ज़िंदगी कब तक तिरी बे-ए'तिनाई देखते
यूँ न खो जाते फ़ज़ा-ए-यास में दुनिया के साथ
काश अपना ही लब-ओ-लहजा रजाई देखते
दिल की मजबूरी से बढ़ कर कोई मजबूरी न थी
हम भी कुछ करते अगर ख़ुद से रिहाई देखते
काश धरती पर गिरा ख़ूँ रंग ले आता 'रियाज़'
जीते-जी हम अपनी फ़सलों की कटाई देखते
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