हो गया है एक इक पल काटना भारी मुझे
हो गया है एक इक पल काटना भारी मुझे
मार देगी ज़िंदगानी की गिराँ-बारी मुझे
दर-ब-दर फिर फिर के ख़ुद अपने से नफ़रत हो गई
खोखला सा कर गया है रंज-ए-बेकारी मुझे
इतना कुछ देखा कि सब कुछ एक सा लगने लगा
कर गया है वक़्त महसूसात से आरी मुझे
मैं सियह मल्बूस गुज़रे वक़्त का हूँ मातमी
ज़ीस्त ने सौंपी है माज़ी की अज़ा-दारी मुझे
एक इक कर के कटे बाहर के सारे राब्ते
कर गई तन्हा मिरी सोचों की बीमारी मुझे
जी में आता है बिखर कर दहर भर में फैल जाऊँ
क़ब्र लगती है बदन की चार-दीवारी मुझे
तू नज़र आया तो जंगल ज़ात का जल जाएगा
राख कर देगी तिरी ख़्वाहिश की चिंगारी मुझे
रोज़ ओ शब रहता हूँ गुम-सुम और मुतफ़क्किर 'रियाज़'
करनी है किस इम्तिहाँ की जाने तय्यारी मुझे
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