तख़्लीक़ किसे कहते हैं है अज़्मत-ए-फ़न क्या
तख़्लीक़ किसे कहते हैं है अज़्मत-ए-फ़न क्या
आवाज़-फ़रोशों के लिए शेर-ओ-सुख़न क्या
फूलों की तिजारत का चलन आम है अब भी
लुटती ही रहेगी यूँही तक़्दीस-ए-चमन क्या
मज़लूम की चीख़ों को भी सुनता नहीं कोई
इस शहर में बस्ते हैं सभी संग-बदन क्या
हम आ तो गए बन के ज़िया ज़ुल्मत-ए-शब में
इस घोर अँधेरे में मगर एक किरन क्या
वक़्त आने पे सर अपना कटा देते हैं 'रहबर'
हम को नहीं मालूम कि है हुब्ब-ए-वतन क्या
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