जो भीक माँगते हुए बच्चे के पास था
उस कासा-ए-सवाल ने सोने नहीं दिया
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नींद आँखों में मुसलसल नहीं होने देता
कोई जादू न फ़साना न फ़ुसूँ है यूँ है
ये सोच कर न फिर कभी तुझ को पुकारा दोस्त
वो मुंतज़िर हैं हमारे तो हम किसी के हैं
शब-ओ-रोज़ रक़्स-ए-विसाल था सो नहीं रहा
नज़्ज़ारा-ए-जमाल ने सोने नहीं दिया
कौन कहाँ तक जा सकता है
मसरूफ़ियत उसी की है फ़ुर्सत उसी की है
हर दिसम्बर इसी वहशत में गुज़ारा कि कहीं
मैं ने तुम्हें चलना सिखाया था
जुनून-ए-इश्क़ में सद-चाक होना पड़ता है