हर दिसम्बर इसी वहशत में गुज़ारा कि कहीं
फिर से आँखों में तिरे ख़्वाब न आने लग जाएँ
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सफ़र में रस्ता बदलने के फ़न से वाक़िफ़ है
दिल को रह रह के ये अंदेशे डराने लग जाएँ
शब-ओ-रोज़ रक़्स-ए-विसाल था सो नहीं रहा
कौन कहाँ तक जा सकता है
ये सोच कर न फिर कभी तुझ को पुकारा दोस्त
कोई जादू न फ़साना न फ़ुसूँ है यूँ है
जो भीक माँगते हुए बच्चे के पास था
तेरी गली को छोड़ के जाना तो है नहीं
मैं ने तुम्हें चलना सिखाया था
जो सहीफ़ों में लिखी है वो क़यामत हो जाए
नींद आँखों में मुसलसल नहीं होने देता