कौन कहाँ तक जा सकता है
कौन कहाँ तक जा सकता है
ये तो वक़्त बता सकता है
इश्क़ में वहशत का इक शोला
घर को आग लगा सकता है
जज़्बों की शिद्दत का सूरज
ज़ंजीरें पिघला सकता है
तेरी आमद का इक झोंका
उजड़ा शहर बसा सकता है
आईने में जुरअत हो तो
अक्स भी सूरत पा सकता है
आँखों में ठहरा इक मंज़र
राह में गर्द उड़ा सकता है
तुझ को पैहम सोचने वाला
ख़्वाब को हाथ लगा सकता है
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