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कितने नायाब थे लम्हे जो वहाँ पर गुज़रे - रज़िया हलीम जंग कविता - Darsaal

कितने नायाब थे लम्हे जो वहाँ पर गुज़रे

कितने नायाब थे लम्हे जो वहाँ पर गुज़रे

जब उठे हाथ दुआओं को तो गौहर बरसे

तक रहे थे तिरे घर को वो समाँ भी क्या था

तू गुज़रता है हवा आई तो हम ये समझे

कितनी ही बार किया हम ने तो ज़मज़म से वज़ू

कितनी ही बार तिरी याद में आँसू छलके

सुर्मा-ए-ख़ाक-ए-मदीना जो लगा आँखों में

मिस्ल आईने के आँखों के नगीने चमके

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In Hindi By Famous Poet Razia Halim Jang. is written by Razia Halim Jang. Complete Poem in Hindi by Razia Halim Jang. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.