जगह बची ही नहीं दिल पे चोट खाने की
उठा लो काश ये आदत जो आज़माने की
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जोगी
अब भी उसी तरह से इसे इंतिज़ार है
क़ल्ब-ओ-जिगर के दाग़ फ़रोज़ाँ किए हुए
चुपके से मुझ को आज कोई ये बता गया
ख़्वाब-फ़रोश
काश पड़ते न इन अज़ाबों में
अपने मेहवर से जब उतर जाऊँ
तमाम रात तिरा इंतिज़ार होता रहा
दहका पड़ा है जामा-ए-गुल यार ख़ैर हो
और कितने अभी सितम होंगे
ये ज़ुल्फ़-ए-यार भी क्या बिजलियों का झुरमुट है