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ख़ुद-निगर थे और महव-ए-दीद-ए-हुस्न-ए-यार थे - रज़ी मुजतबा कविता - Darsaal

ख़ुद-निगर थे और महव-ए-दीद-ए-हुस्न-ए-यार थे

ख़ुद-निगर थे और महव-ए-दीद-ए-हुस्न-ए-यार थे

हम कि अपने रू-ब-रू शीशा की इक दीवार थे

फिर निगाहों ने बुने थे चार सू ख़्वाबों के जाल

सू-ब-सू फिर रिश्ता-गर वहम-ओ-गुमाँ के तार थे

मुख़्तसर सा है हमारा क़िस्सा-ए-शौक़-ए-सफ़र

अब्र-ए-आवारा थे हम लेकिन सर-ए-कोहसार थे

ख़ंदा-रेज़ ओ गिर्या-गीं थी ज़ख़्म-ए-ख़ातिर की नुमूद

दूर दुनिया के तअय्युन से मिरे आज़ार थे

मैं सवाद-ए-दश्त-ए-तन्हाई का फलता पेड़ था

सब्ज़ ज़हर-ए-बे-कसी से मेरे बर्ग-ओ-बार थे

बुझ गया था दिल हमारा ब'अद-ए-शरह-ए-आरज़ू

जी की हम कहने गए तो कुश्ता-ए-इज़्हार थे

राएगाँ थी अपनी आब-ओ-ताब भी क्या क्या 'रज़ी'

हम कि इक बे-म'अरका और बे-अदू तलवार थे

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In Hindi By Famous Poet Razi Mujtaba. is written by Razi Mujtaba. Complete Poem in Hindi by Razi Mujtaba. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.