ख़ुद-निगर थे और महव-ए-दीद-ए-हुस्न-ए-यार थे
ख़ुद-निगर थे और महव-ए-दीद-ए-हुस्न-ए-यार थे
हम कि अपने रू-ब-रू शीशा की इक दीवार थे
फिर निगाहों ने बुने थे चार सू ख़्वाबों के जाल
सू-ब-सू फिर रिश्ता-गर वहम-ओ-गुमाँ के तार थे
मुख़्तसर सा है हमारा क़िस्सा-ए-शौक़-ए-सफ़र
अब्र-ए-आवारा थे हम लेकिन सर-ए-कोहसार थे
ख़ंदा-रेज़ ओ गिर्या-गीं थी ज़ख़्म-ए-ख़ातिर की नुमूद
दूर दुनिया के तअय्युन से मिरे आज़ार थे
मैं सवाद-ए-दश्त-ए-तन्हाई का फलता पेड़ था
सब्ज़ ज़हर-ए-बे-कसी से मेरे बर्ग-ओ-बार थे
बुझ गया था दिल हमारा ब'अद-ए-शरह-ए-आरज़ू
जी की हम कहने गए तो कुश्ता-ए-इज़्हार थे
राएगाँ थी अपनी आब-ओ-ताब भी क्या क्या 'रज़ी'
हम कि इक बे-म'अरका और बे-अदू तलवार थे
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