मुझ को पाना है तो फिर मुझ में उतर कर देखो
यूँ किनारे से समुंदर नहीं देखा जाता
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ख़ुश्बू हैं तो हर दौर को महकाएँगे हम लोग
जिस पल मैं ने घर की इमारत ख़्वाब-आसार बनाई थी
कभी ख़ुर्शीद-ए-ज़िया-बार हूँ मैं
जभी तो ज़ख़्म भी गहरा नहीं है
अब कैसे चराग़ क्या चराग़ाँ
आए हम शहर-ए-ग़ज़ल में तो इस आग़ाज़ के साथ
वो जंग मैं ने महाज़-ए-अना पे हारी है
ऐ सुब्ह-ए-उमीद देर क्या है
अब सफ़र हो तो कोई ख़्वाब-नुमा ले जाए
फिर जो देखा दूर तक इक ख़ामुशी पाई गई
हम रूह-ए-सफ़र हैं हमें नामों से न पहचान
रंग अब यूँ तिरी तस्वीर में भरता जाऊँ