हम इतने परेशाँ थे कि हाल-ए-दिल-ए-सोज़ाँ
उन को भी सुनाया कि जो ग़म-ख़्वार नहीं थे
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कुछ लोग समझने ही को तयार नहीं थे
मैं कहाँ और अर्ज़-ए-हाल कहाँ
अब सफ़र हो तो कोई ख़्वाब-नुमा ले जाए
बिछड़ते वक़्त तो कुछ उस में ग़म-गुसारी थी
इन्ही गलियों में इक ऐसी गली है
था मिरी जस्त पे दरिया बड़ी हैरानी में
सफ़र कठिन ही सही क्या अजब था साथ उस का
कैसे इस शहर में रहना होगा
हम जहाँ नग़्मा-ओ-आहंग लिए फिरते हैं
दिन का मलाल शाम की वहशत कहाँ से लाएँ
छेड़ के साज़-ए-ज़रगरी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा है रक़्स में
कभी ख़ुर्शीद-ए-ज़िया-बार हूँ मैं