वो तमाम रंग अना के थे वो उमंग सारी लहू से थी
वो तमाम रंग अना के थे वो उमंग सारी लहू से थी
वो जो रब्त-ज़ब्त गुलों से था जो दुआ-सलाम सुबू से थी
कोई और बात ही कुफ़्र थी कोई और ज़िक्र ही शिर्क था
जो किसी से वादा-ए-दीद था तो तमाम शब ही वज़ू से थी
न किसी ने ज़ख़्म की दाद दी न किसी ने चाक-ए-रफ़ू किया
मिले हम को जितने भी बख़िया-गर उन्हें फ़िक्र अपने रफ़ू से थी
तिरे मुतरीबों को ख़ुदा रखे मगर अब कहाँ तिरी बज़्म में
कोई सुर जो मेरे सुख़न में था कोई लय जो मेरे लहू से थी
सर-ए-कारज़ार खड़े हो 'शौक़' तो यूँ ही सीना सुपर रहो
कि वो लोग कौन से बच गए जिन्हें एहतियात अदू से थी
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