वो शाख़-ए-गुल कि जो आवाज़-ए-अंदलीब भी थी
वो शाख़-ए-गुल कि जो आवाज़-ए-अंदलीब भी थी
हुई जो ख़ुश्क तो मेरे लिए सलीब भी थी
दयार-ए-संग में सर फोड़ती फिरी बरसों
मिरी सदा कि जो इस दौर की नक़ीब भी थी
जो शम्अ' दूर थी उस ने फ़क़त धुआँ ही दिया
उसी की लौ से जला हूँ जो कुछ क़रीब भी थी
सरिश्त-ए-हुस्न अजब है कि वस्ल के हंगाम
निगाह-ए-यार में कैफ़िय्यत-ए-रक़ीब भी थी
सकूँ कहाँ कि मैं आशोब-ए-फ़िक्र रखता हूँ
जो महर था तो तमाज़त मिरा नसीब भी थी
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