सलामत आए हैं फिर उस के कूचा-ओ-दर से
सलामत आए हैं फिर उस के कूचा-ओ-दर से
न कोई संग ही आया न फूल ही बरसे
मैं आगही के अजब मंसबों पे फ़ाएज़ हूँ
कि आप अपना ही मुंकिर हूँ अपने अंदर से
न जाने किस को ये एज़ाज़-ए-फ़न मिला होगा
तमाम शहर में बिखरे हुए हैं पत्थर से
अब इस के मौज-ओ-तलातुम में डूबने से न डर
गुहर भी तुझ को मिले थे उसी समुंदर से
ये एहतिमाम-ए-चराग़ाँ भी किस कमाल का है
दिए जले हैं तो मैं बुझ गया हूँ अंदर से
अजब समाँ था कि अब तक हैं ज़ख़्म ज़ख़्म आँखें
मैं कोर-चश्म भला आगही के मंज़र से
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