फिर जो देखा दूर तक इक ख़ामुशी पाई गई
फिर जो देखा दूर तक इक ख़ामुशी पाई गई
मैं तो समझा था कि इक मेरी ही गोयाई गई
फिर वही बादल कि जी उड़ने को चाहे जिन के साथ
फिर वही मौसम कि जब ज़ंजीर पहनाई गई
फिर वही ताइर वही उन की ग़ज़ल-ख़्वानी के दिन
फिर वही रुत जिस में मेरी नग़्मा-पैराई गई
कुछ तो है आख़िर जो सारा शहर तारीकी में है
या मिरा सूरज गया या मेरी बीनाई गई
थम गए सब संग सब शोर-ए-मलामत रुक गया
मैं ही क्या जी से गया सारी सफ़-आराई गई
पूछती है दस्तकें दे दे के शोरीदा हवा
किस का ख़ेमा था कि जिस में रौशनी पाई गई
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