न फ़ासले कोई रखना न क़ुर्बतें रखना
न फ़ासले कोई रखना न क़ुर्बतें रखना
बस अब ब-क़द्र-ए-ग़ज़ल उस से निस्बतें रखना
ये किस तअल्लुक़-ए-ख़ातिर का दे रहा है सुराग़
कभी कभी तिरा मुझ से शिकायतें रखना
मैं अपने सच को छुपाऊँ तो रूह शोर मचाए
अज़ाब हो गया मेरा समाअतें रखना
फ़ज़ा-ए-शहर में अब के बड़ी कुदूरत है
बहुत सँभाल के अपनी मोहब्बतें रखना
हम अहल-ए-फ़न को भी गुम-नामियाँ थीं रास बहुत
हुआ है बाइस-ए-रुस्वाई शोहरतें रखना
क़सीदा-ख़्वानी करो और मौज उड़ाओ कि 'शौक़'
तमाम कार-ए-ज़ियाँ है सदाक़तें रखना
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