कुछ लोग समझने ही को तयार नहीं थे
कुछ लोग समझने ही को तयार नहीं थे
हम वर्ना कोई उक़्दा-ए-दुश्वार नहीं थे
सद-हैफ़ कि देखा है तुझे धूप से बे-कल
अफ़्सोस कि हम साया-ए-दीवार नहीं थे
हम इतने परेशाँ थे कि हाल-ए-दिल-ए-सोज़ाँ
उन को भी सुनाया कि जो ग़म-ख़्वार नहीं थे
सच ये है कि इक उम्र गुज़ारी सर-ए-मक़्तल
हम कौन से लम्हे में सर-ए-दार नहीं थे
माना कि बहुत तेज़ थी रफ़्तार-ए-हवादिस
हम भी कोई गिरती हुई दीवार नहीं थे
ये उस की इनायत है कि अपना के तुम्हें 'शौक़'
वो ज़ख़्म दिए जिन के सज़ा-वार नहीं थे
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