जभी तो ज़ख़्म भी गहरा नहीं है
जभी तो ज़ख़्म भी गहरा नहीं है
जो संग आया है वो पहला नहीं है
कभी चेहरे थे आईने नहीं थे
अब आईना है और चेहरा नहीं है
ये इक शाएर कि जिस को 'शौक़' कहते
कभी इक हाल में रहता नहीं है
कभी हर लफ़्ज़ एजाज़-ए-मसीहा!
कभी यूँ जैसे कुछ कहना नहीं है
कभी आँखें समुंदर सी सख़ी हैं
कभी दरिया में इक क़तरा नहीं है
बहुत हैं उस की दरवेशी के चर्चे
मगर दरवेश भी ऐसा नहीं है
न रास आया तो ये भी छोड़ देंगे
तिरा दरवाज़ा है दुनिया नहीं है
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