इन्ही गलियों में इक ऐसी गली है
इन्ही गलियों में इक ऐसी गली है
जो मेरे नाम से तन्हा रही है
अब इस से और भी शमएँ जला लो
सवाद-ए-जाँ में इक मशअ'ल जली है
हमारे सर गए संग-ए-हरीफ़ाँ
मय-ओ-मीना से आफ़त टल गई है
मैं बहर-ए-आज़माइश भी जला हूँ
कि देखूँ मुझ में कितनी रौशनी है
इलाही ख़ैर हो इन बस्तियों की
पस-ए-दीवार इक परछाईं सी है
सवाद-ए-शहर में कोई बला है
जो वहशत बिन के पीछा कर रही है
हुई फिर शाम फिर दिन भर की शोरिश
गली-कूचों में छप कर सो गई है
कुछ ऐसे सो रहे हैं शहर वाले
कि इक मुद्दत में नींद उन को मिली है
ये घर सोते के सोते ही न रह जाएँ
हवा-ए-हश्र-सामाँ चल रही है
हुई फिर सुब्ह ज़ख़्मों के उफ़ुक़ से
फ़ज़ा फिर ताज़ा दम हो कर उठी है
किसी क़ैदी को फिर ख़्वाबों से उठ कर
किसी ज़ंजीर ने आवाज़ दी है
घरों से चंद लम्हों की रिफ़ाक़त
बिछड़ कर शहर की जानिब चली है
लहू रिसता है दस्त-ए-शीशा-गर से
फ़ज़ा आईना-ख़ाना बन गई है
फिर अपने दाएरे क़ौसें बनाए
वही मिट्टी वही कूज़ा-गरी है
तुम इस से क्या बचोगे 'शौक़'-साहब
कि क़िस्मत में यही गर्दिश लिखी है
(709) Peoples Rate This