ऐ सुब्ह-ए-उमीद देर क्या है
ऐ सुब्ह-ए-उमीद देर क्या है
अब कितने दियों का फ़ासला है
अब कितनी है देर रौशनी में
अब कितनी शबों का मरहला है
हम हिज्र की रात के मुसाफ़िर
इस दश्त से हम को क्या मिला है
वो ख़्वाब तो जल-बुझे हैं सारे
वो ख़ेमा तो राख हो चला है
अब कैसे चराग़ क्या चराग़ाँ
जब सारा वजूद जल रहा है
बाहर भी वही फ़ज़ा है सारी
इन्दर भी मिरे वही ख़ला है
इक दिल है और इतनी क़त्ल-गाहें
जो राह चलो वो कर्बला है
वो दौर है ये कि सुनने वाला
हर लफ़्ज़ को छू के देखता है
इतने जो अज़ाब उतर रहे हैं
इस शहर को किस की बद-दुआ है
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