Ghazals of Razi Akhtar Shauq
नाम | राज़ी अख्तर शौक़ |
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अंग्रेज़ी नाम | Razi Akhtar Shauq |
जन्म की तारीख | 1933 |
मौत की तिथि | 1999 |
जन्म स्थान | Karachi |
यूँ तो लिखने के लिए क्या नहीं लिक्खा मैं ने
ये दौर-ए-कम-नज़राँ है तो फिर सिला कैसा
वो तमाम रंग अना के थे वो उमंग सारी लहू से थी
वो शाख़-ए-गुल की तरह मौसम-ए-तरब की तरह
वो शाख़-ए-गुल कि जो आवाज़-ए-अंदलीब भी थी
वो जंग मैं ने महाज़-ए-अना पे हारी है
था मिरी जस्त पे दरिया बड़ी हैरानी में
शायद अब रूदाद-ए-हुनर में ऐसे बाब लिखे जाएँगे
संग हैं नावक-ए-दुश्नाम हैं रुस्वाई है
सलामत आए हैं फिर उस के कूचा-ओ-दर से
सफ़र कठिन ही सही क्या अजब था साथ उस का
रोज़ इक शख़्स चला जाता है ख़्वाहिश करता
रंग अब यूँ तिरी तस्वीर में भरता जाऊँ
फिर जो देखा दूर तक इक ख़ामुशी पाई गई
न फ़ासले कोई रखना न क़ुर्बतें रखना
मैं कहाँ और अर्ज़-ए-हाल कहाँ
मैं जब भी क़त्ल हो कर देखता हूँ
कुछ लोग समझने ही को तयार नहीं थे
ख़्वाबों की इक भीड़ लगी है जिस्म बेचारा नींद में है
ख़ुश्बू हैं तो हर दौर को महकाएँगे हम लोग
कैसे कटे क़सीदा-गो हर्फ़-गरों के दरमियाँ
कैसे इस शहर में रहना होगा
कभी ख़ुर्शीद-ए-ज़िया-बार हूँ मैं
जिस पल मैं ने घर की इमारत ख़्वाब-आसार बनाई थी
जिस ने बनाया हर आईना मैं ही था
जभी तो ज़ख़्म भी गहरा नहीं है
जाने क्या है जिसे देखो वही दिल-गीर लगे
इन्ही गलियों में इक ऐसी गली है
हम जहाँ नग़्मा-ओ-आहंग लिए फिरते हैं
हलाक-ए-कश्मकश-ए-राएगाँ बहुत से हैं