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दस्तूर साज़ी की कोशिश - रज़ा नक़वी वाही कविता - Darsaal

दस्तूर साज़ी की कोशिश

यूँ तो हर शाइ'र की फ़ितरत में है कुछ दीवानगी

ग़ैर ज़िम्मेदारियाँ हैं उस की जुज़्व-ए-ज़िंदगी

अर्ज़-शे'रिस्तान में ये शाइ'राना ख़ासियत

कैंसर की तरह से जब फैलने बढ़ने लगी

मुख़्तलिफ़ स्कूल जब जंगी अखाड़े बन गए

फ़िक्र-ओ-फ़न में जब निराजी कैफ़ियत पैदा हुई

मुम्लिकत में ज़ाबता कोई न जब बाक़ी रहा

हर जगह क़ानून की होने लगी बे-हुरमती

एक इक तुक-बंद उस्तादों के मुँह आने लगा

लिख के सुब्ह-ओ-शाम नज़्में बे-तुकी से बे-तुकी

कूड़े-कर्कट की तरह हर सू नज़र आने लगें

ढेरियाँ ही ढेरियाँ दीवान-ए-ख़ास-ओ-आम की

हद तो ये है अहल-ए-मछली-शहर भी करने लगे

माही-गीरी छोड़ कर दिन रात फ़िक्र-ए-शाइरी

जिन से बोहरान-ए-ग़िज़ा स्टेट में पैदा हुआ

क़हत-ए-माही से बढ़ी हर चार जानिब भुक-मरी

चंद क़ौमी दर्द रखने वाले अहलुर्राय से

क़ौम की ना-गुफ़्ता-ब-हालत न जब देखी गई

एक दस्तूर-उल-अमल तय्यार करने के लिए

इक कमेटी 'अम्न'-साहब की सदारत में बनी

ताकि इस पर चल के नज़्म-ओ-ज़ब्त आए क़ौम में

ताकि कुछ तो मो'तदिल हो शाइ'रों की ज़िंदगी

दूसरे कामों में भी क़ौमी एनर्जी सर्फ़ हो

तुक फ़रोशी के अलावा भी तो मक़्सद हो कोई

दौर-ए-'अफ़लातून'-ओ-'तुलसी-दास' से 'इक़बाल' तक

हिस्ट्री कल शाइ'रों की इस कमेटी ने पढ़ी

दूसरे मुल्कों के आईन-ओ-ज़वाबित में जहाँ

जो मुनासिब बात थी वो छाँट कर रख ली गई

रात दिन की सख़्त मेहनत और जाँ-सोज़ी के बा'द

इस कमेटी ने रिपोर्ट अपनी बिल-आख़िर पेश की

खाका-ए-दस्तूर-ए-क़ौमी या'नी वो शे'री रिपोर्ट

'अम्न'-साहब ने रक़म की थी ब-सिंफ़-ए-मसनवी

इस पे राय-आम्मा मा'लूम करने के लिए

शाइ'रों को नक़्ल दस्तावेज़ की भेजी गई

मुख़्तलिफ़ अहल-ए-सुख़न ने अपने अपने तौर पर

राय दी दस्तूर में तरमीम या तनसीख़ की

मसनवी में ख़ामियाँ ढूँडें ज़बाँ की जा-ब-जा

एक शाइ'र ने जो थे शागिर्द-ए-नूह-नार्वी

सैकड़ों मिसरे बदल कर रख दिए कुछ इस तरह

नफ़्स-ए-मज़मूँ नज़्र हो कर रह गया इस्लाह की

उन का कहना था कि बंदिश चुस्त होनी चाहिए

शे'र के अंदर बला से हो न फ़िक्री ताज़गी

ना'त-गो हज़रात का कहना था शाइ'र के लिए

शर्त अव्वल है कि हो जाए वो कट्टर मज़हबी

आक़िबत की बात सोचे और मुनाजातें लिखे

उस के जन में कार-आमद शाइ'री है बस वही

ऐसे शाइ'र जो कि हामी थे तरक़्क़ी-वाद के

इन का कहना था कि शाइ'र का सुख़न हो मक़सदी

या'नी पहले से मुक़र्रर-कर्दा मौज़ूआत पर

मुम्लिकत में आम की जाए शुऊ'री शाइ'री

ख़्वाह शे'रिस्तान में इस का न हो कोई वजूद

लाज़िमन दिखलाई जाए कश्मकश तबक़ात की

इक क़बीला जो मुख़ालिफ़ था शुऊ'री फ़िक्र का

था तरक़्क़ी-वादियों से जिस को बुग़्ज़-ए-लिल्लही

इस क़बीले का ये कहना था कि शाइ'र का कलाम

लाज़िमन हो इक मुअ'म्मा क़ैद-ए-मा'नी से बरी

जिस को शाइ'र ख़ुद न समझे नज़्म कर लेने के बा'द

जिस को पढ़ कर गुम हो अक़्ल-ए-मौलवी-ए-मानवी

देख कर दस्तूर में नज़्म-ओ-नसक़ का तज़्किरा

सख़्त बरहम हो गए कुल शाइरान-ए-नक्सली

इन का नुक्ता था कि शाइ'र फ़ितरतन आज़ाद है

उस पे लग सकती नहीं पाबंदियाँ तंज़ीम की

ज़िंदगी में ज़ाबता लाने के बिल्कुल थे ख़िलाफ़

साथ नक्सल-वादियों के दूसरे हज़रात भी

मुख़्तसर ये है कि सब ने रद किया दस्तूर को

सारी मेहनत 'अम्न'-साहब की अकारत हो गई

देख कर ना-आक़िबत अंदेशी-ए-अहल-ए-सुख़न

इस तरह गोया हुई उन की मोहज़्ज़ब ख़ामुशी

मेंडकों को तोलना आसाँ नहीं है जिस तरह

शाइ'रों को भी मुनज़्ज़म करना मुश्किल है यूँही

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