फिर राह दिखा मुझ को ऐ मशरब-ए-रिंदाना
फिर राह दिखा मुझ को ऐ मशरब-ए-रिंदाना
कुछ बहस नहीं इस से का'बा है कि बुत-ख़ाना
ख़म है न सुबूही है शीशा है न पैमाना
क्या जाने कहाँ ग़म है ताबानी-ए-मय-ख़ाना
इस तरह भी होती है तश्हीर-ए-वफ़ा अक्सर
फिरती है सबा ले कर ख़ाकिस्तर-ए-परवाना
की वुसअ'त-ए-सहरा की क़दमों ने पज़ीराई
मुझ सा न कोई होगा शाइस्ता-ए-वीराना
हर रिंद-ए-बला-कश पर गिरती है सर-ए-महफ़िल
बर्क़-ए-निगह-ए-साक़ी पैमाना-ब-पैमाना
इरफ़ान-ए-तलब कहिए या तर्क-ए-तलब उस को
मंज़िल का शनासा भी मंज़िल से है बेगाना
कुछ ख़ार-ए-चमन का भी हो ज़िक्र चमन-साज़ो
ग़ुंचों का बयाँ ता-कै अफ़्साना-दर-अफ़्साना
फ़रज़ान्गी-ए-दिल भी कुछ चाहिए वहशत में
दीवाना सर-ए-महफ़िल बन जाए न दीवाना
थी शम-ए-फ़रोज़ाँ की तर्ग़ीब-ए-जिगर-सोज़ी
या आग में ख़ुद अपनी जल उट्ठा है परवाना
असरार दो-आलम के खुलते हैं 'रज़ा' दिल पर
तकवीन-ए-अज़ल का है महरम दिल-ए-दीवाना
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