मकीं और भी हैं मकाँ और भी हैं
मकीं और भी हैं मकाँ और भी हैं
यही दो-जहाँ क्या जहाँ और भी हैं
मक़ामात-ए-दैर-ओ-हरम से गुज़र कर
तिरी अज़्मतों के निशाँ और भी हैं
किए जाइए सई-ए-तस्ख़ीर-ए-फ़ितरत
अभी राज़-हा-ए-निहाँ और भी हैं
ज़रा ख़त्म हो कर तौक़-ओ-सलासिल
ज़बाँ पर लिए दास्ताँ और भी हैं
मिटा दो मिरा नक़्श-ए-हस्ती नहीं ग़म
मिरी ज़िंदगी के निशाँ और भी हैं
समेट अपना दामन न आग़ोश-ए-मंज़िल
कि रहरव पस-ए-कारवाँ और भी हैं
नहीं सिर्फ़ ज़ाहिद ही जल्वों का महरम
तिरे हुस्न के राज़दाँ और भी हैं
(556) Peoples Rate This