बेदार हो गए हैं जो ख़्वाब-ए-गिराँ से हम
बेदार हो गए हैं जो ख़्वाब-ए-गिराँ से हम
आगे निकल गए हैं ज़बान-ओ-मकाँ से हम
लग जाएगी ठिकाने कभी ख़ाक-ए-ज़िंदगी
लिपटे रहेंगे गर्द-ए-पस-ए-कारवाँ से हम
मंज़िल भी थी निगाह में गर्द-ओ-ग़ुबार-ए-राह
ले कर चले जो इज़्न-ए-सफ़र कहकशाँ से हम
उस संग-ए-आस्ताँ पे झुका कर जबीन-ए-शौक़
लो बे-नियाज़ हो गए दोनों-जहाँ से हम
माना नहीं है यूँ ही हमारे वजूद को
टकराए हैं ज़मीं से कभी आसमाँ से हम
आग़ाज़-ओ-इंतिहा की हक़ीक़त से बे-ख़बर
शरह-ए-हयात करते रहे दरमियाँ से हम
क्या पूछते हो गर्दिश-ए-तक़दीर-ए-कारवाँ
पहुँचे वहीं पे आ के चले थे जहाँ से हम
सज्दे ही याद हैं न तिरे संग-ए-दर का होश
सर भी झुका के दूर रहे आस्ताँ से हम
कुछ भी न था 'रज़ा' वो ब-जुज़ दूद-ए-आह-ए-शौक़
ताबीर जिस को करते रहे आसमाँ से हम
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