ज़ख़्म के लगते ही क्या खुल गए छाती के किवाड़
आगे ये ख़ाना-ए-दिलचस्प हवा दार न था
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सुनते तो थे 'रज़ा' हैं सब हैं बड़े मुसलमाँ
शर्मिंदा नहीं कौन तिरी इश्वा-गरी का
हम को मिली है इश्क़ से इक आह-ए-सोज़-नाक
इस चश्म ओ दिल ने कहना न माना तमाम उम्र
ख़्वाह काफ़िर मुझे कह ख़्वाह मुसलमान ऐ शैख़
जब उठे तेरे आस्ताने से
टुक तू महमिल का निशाँ दे जल्द ऐ सूरत ज़रा
काबे में शैख़ मुझ को समझे ज़लील लेकिन
यार को बेबाकी में अपना सा हम ने कर लिया
सच कह 'रज़ा' ये किस से लगाई है साट-बाट
ग़ैरों का उस तरफ़ से गुज़ारा न जाएगा
ऐसा किसी से जुनूँ दस्त-ओ-गरेबाँ न हो