नौ-मश्क़-ए-इश्क़ हैं हम आहें करें अजब क्या
गीली जलेगी लकड़ी क्यूँकर धुआँ न होगा
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आरज़ू-ए-विसाल में सब हैं
ऐसा किसी से जुनूँ दस्त-ओ-गरेबाँ न हो
क्या न-दीदों से ज़माने को सरोकार है आज
यार के रुख़ ने कभी इतना न हैराँ किया
ग़ैरों का उस तरफ़ से गुज़ारा न जाएगा
जिस तरह हम रहे दुनिया में हैं उस तरह 'रज़ा'
किस तरह 'रज़ा' तू न हो धवाने ज़माना
क्या कहें अपनी सियह-बख़्ती ही का अंधेर है
टुक तू महमिल का निशाँ दे जल्द ऐ सूरत ज़रा
टुक बैठ तू ऐ शोख़-ए-दिल-आराम बग़ल में
न काबा है यहाँ मेरे न है बुत-ख़ाना पहलू में
हम मर गए प शिकवे की मुँह पर न आई बात