न काबा है यहाँ मेरे न है बुत-ख़ाना पहलू में
लिया किस घर बसे ने आह आ कर ख़ाना पहलू में
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इक दम के वास्ते न किया क्या क्या ऐ 'रज़ा'
भर नज़र देखेंगे हम उस को मिला जानाँ अगर
यार के रुख़ ने कभी इतना न हैराँ किया
काबा ओ दैर जिधर देखा उधर कसरत है
किस लिए सहरा के मुहताज-ए-तमाशा होजिए
चला है काबे को बुत-ख़ाने से 'रज़ा' यारो
मेरे नाले पर नहीं तुझ को तग़ाफ़ुल के सिवा
इस तरह बज़्म में वस्फ़-ए-रुख़-ए-जानाना करूँ
ऐसा किसी से जुनूँ दस्त-ओ-गरेबाँ न हो
गुल-ए-उश्शाक़ रंग-ए-बाख़्ता है
सब कुछ पढ़ाया हम को मुदर्रिस ने इश्क़ के