क्या कहें अपनी सियह-बख़्ती ही का अंधेर है
वर्ना सब की हिज्र की रात ऐसी काली भी नहीं
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काबा ओ दैर जिधर देखा उधर कसरत है
जब उठे तेरे आस्ताने से
टुक तू महमिल का निशाँ दे जल्द ऐ सूरत ज़रा
यार के रुख़ ने कभी इतना न हैराँ किया
सौ ईद अगर ज़माने में लाए फ़लक व-लेक
गर गरेबाँ सिया तो क्या नासेह
इलाही चश्म-ए-बद उस से तू दूर ही रखियो
सच कह 'रज़ा' ये किस से लगाई है साट-बाट
वबाल-ए-जान हर इक बाल है म्याँ
किस तरह 'रज़ा' तू न हो धवाने ज़माना
क्या न-दीदों से ज़माने को सरोकार है आज
अब्र है अब्र है शराब शराब