ख़्वाह काफ़िर मुझे कह ख़्वाह मुसलमान ऐ शैख़
बुत के हाथों में बिका या हूँ ख़ुदा की सौगंद
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काबा ओ दैर जिधर देखा उधर कसरत है
टुक तू महमिल का निशाँ दे जल्द ऐ सूरत ज़रा
हाथ उस के न आया दामन-ए-नाज़
ख़ुशा हो कर बुताँ कब आशिक़ों को याद करते हैं
क्या कहें अपनी सियह-बख़्ती ही का अंधेर है
गर गरेबाँ सिया तो क्या नासेह
रफ़ू फिर कीजियो पैराहन-ए-यूसुफ़ को ऐ ख़य्यात
चला है काबे को बुत-ख़ाने से 'रज़ा' यारो
ज़ख़्म के लगते ही क्या खुल गए छाती के किवाड़
अब्र है अब्र है शराब शराब
किस तरह 'रज़ा' तू न हो धवाने ज़माना
ऐसा किसी से जुनूँ दस्त-ओ-गरेबाँ न हो