काबा ओ दैर जिधर देखा उधर कसरत है
आह क्या जाने किधर गोशा-ए-तन्हाई है
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इश्क़ के जाँ-निसार जीते हैं
वबाल-ए-जान हर इक बाल है म्याँ
यार के रुख़ ने कभी इतना न हैराँ किया
शर्मिंदा नहीं कौन तिरी इश्वा-गरी का
जो तिरे दर पे मेरी जाँ आया
आरज़ू-ए-विसाल में सब हैं
इक दम के वास्ते न किया क्या क्या ऐ 'रज़ा'
तबीब देख के मुझ को दवा न कुछ बोला
नाज़ का मारा हुआ हूँ मैं अदा की सौगंद
किस लिए सहरा के मुहताज-ए-तमाशा होजिए
मुझ को जो कहते हो म्याँ तुम हो कहाँ तुम हो कहाँ
उस घड़ी कुछ थे और अब कुछ हो