देखी थी एक रात तिरी ज़ुल्फ़ ख़्वाब में
फिर जब तलक जिया मैं परेशान ही रहा
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सौ ईद अगर ज़माने में लाए फ़लक व-लेक
वबाल-ए-जान हर इक बाल है म्याँ
यार को बेबाकी में अपना सा हम ने कर लिया
ऐसा किसी से जुनूँ दस्त-ओ-गरेबाँ न हो
हाथ उस के न आया दामन-ए-नाज़
उस घड़ी कुछ थे और अब कुछ हो
इश्क़ के जाँ-निसार जीते हैं
सुनते तो थे 'रज़ा' हैं सब हैं बड़े मुसलमाँ
ख़्वाह काफ़िर मुझे कह ख़्वाह मुसलमान ऐ शैख़
मैं ही नहीं हूँ बरहम उस ज़ुल्फ़-ए-कज-अदा से
रफ़ू फिर कीजियो पैराहन-ए-यूसुफ़ को ऐ ख़य्यात