ज़ुल्फ़ खोले था कहाँ अपनी वो फिर बेबाक रात
ज़ुल्फ़ खोले था कहाँ अपनी वो फिर बेबाक रात
ख़ुद-ब-ख़ुद होता था जूँ शाना दिल अपना चाक रात
बर्ग-ए-गुल शबनम से तर मत जानियो ऐ बाग़बाँ
गुल ने दामन से किए बुलबुल के आँसू पाक रात
शम्अ' रौशन जूँ कि आती है नज़र फ़ानूस में
बुर्क़ा में था जल्वा-गर वो रू-ए-आतिशनाक रात
मुग़बचे के चूकने से हो गया सारा ख़लल
थे लगाए वर्ना रिंदाँ दुख़्त-ए-रज़ से ताक रात
तू ने भरियाँ शोला-अफ़्शाँ ऐसी ही आहें 'रज़ा'
यार के कूचे के जल गए सब ख़स-ओ-ख़ाशाक रात
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