Ghazals of Raza Azimabadi
नाम | रज़ा अज़ीमाबादी |
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अंग्रेज़ी नाम | Raza Azimabadi |
ज़ुल्फ़ खोले था कहाँ अपनी वो फिर बेबाक रात
यार को बेबाकी में अपना सा हम ने कर लिया
यार के रुख़ ने कभी इतना न हैराँ किया
या फ़क़ीरी है या कि शाही है
वबाल-ए-जान हर इक बाल है म्याँ
उस घड़ी कुछ थे और अब कुछ हो
उस चश्म ने कि तूतियों को नुक्ता-दाँ किया
टुक तू महमिल का निशाँ दे जल्द ऐ सूरत ज़रा
टुक बैठ तू ऐ शोख़-ए-दिल-आराम बग़ल में
तबीब देख के मुझ को दवा न कुछ बोला
शर्मिंदा नहीं कौन तिरी इश्वा-गरी का
सच कह 'रज़ा' ये किस से लगाई है साट-बाट
निकल मत घर से तू ऐ ख़ाना-आबाद
नाज़ का मारा हुआ हूँ मैं अदा की सौगंद
मुझ को जो कहते हो म्याँ तुम हो कहाँ तुम हो कहाँ
मेरे नाले पर नहीं तुझ को तग़ाफ़ुल के सिवा
मौत भी आती नहीं हिज्र के बीमारों को
मैं ही नहीं हूँ बरहम उस ज़ुल्फ़-ए-कज-अदा से
लाज़िम है बुलंद आह की रायत न करे तू
क्या न-दीदों से ज़माने को सरोकार है आज
किस लिए सहरा के मुहताज-ए-तमाशा होजिए
जो तिरे दर पे मेरी जाँ आया
जब उठे तेरे आस्ताने से
इश्क़ की बीमारी है जिन को दिल ही दिल में गलते हैं
इश्क़ के जाँ-निसार जीते हैं
इस तरह बज़्म में वस्फ़-ए-रुख़-ए-जानाना करूँ
हम मर गए प शिकवे की मुँह पर न आई बात
हाथ उस के न आया दामन-ए-नाज़
हर नफ़स मूरिद-ए-सफ़र हैं हम
गुल-ए-उश्शाक़ रंग-ए-बाख़्ता है