हूँ शामिल सब में और सब से जुदा हूँ
हूँ शामिल सब में और सब से जुदा हूँ
मैं ख़ुद ये सोचता रहता हूँ क्या हूँ
हिसार-ए-ज़ात से बाहर निकल कर
मैं हर सूरत में तुझ को ढूँढता हूँ
वो मुझ से दूर भी है पास भी है
कभी मैं अपने दिल में देखता हूँ
मैं ख़ुद कुछ भी नहीं हूँ ये भी सच है
नवा वो है मगर मैं हम-नवा हूँ
कभी मैं अपने आलम में नहीं हूँ
कभी राज़ी कभी ख़ुद से ख़फ़ा हूँ
मुझे कब तक इस आलम में रखेगा
तिरी क्या मस्लहत है सोचता हूँ
तमाशा-गाह-ए-हस्ती की न पूछो
मैं ख़ुद ही इब्तिदा ख़ुद इंतिहा हूँ
मुझे जल्वत में क्या क्या देखना है
अभी ख़ल्वत में मसरूफ़-ए-दुआ हूँ
'रज़ा' इक बंदा-ए-आजिज़ हूँ मैं तो
वही लिखता हूँ जो कुछ देखता हूँ
(434) Peoples Rate This