ज़िंदगी जब से शनासा-ए-मुहालात हुई
ज़िंदगी जब से शनासा-ए-मुहालात हुई
सच तो ये है कि ख़ुद अपने से मुलाक़ात हुई
पर्दा-ए-ग़म जिसे समझा था वही ख़ामोशी
कल तिरी बज़्म में मौज़ू-ए-हकायात हुई
हम को ऐ क़ाफ़िला-ए-शौक़ ये क्या याद रहे
कि हुई सुब्ह कहाँ और कहाँ रात हुई
तिरी दुज़-दीदा-निगाही का ख़याल आते ही
दिल में इक रौशनी-ए-कश्फ़-ए-हिजाबात हुई
इस क़दर सहल कहाँ मरहला-ए-सोज़-ओ-गुदाज़
रात भर शम्अ का जलना भी कोई बात हुई
पास-ए-आदाब-ए-मोहब्बत कि ब-ईं राज़ ओ नियाज़
मुद्दतों बाद-ए-सबा से न कोई बात हुई
जिस की महफ़िल को 'रविश' जन्नत-ए-फ़र्दा कहिए
कल उसी ख़ुसरव-ए-ख़ूबाँ से मुलाक़ात हुई
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