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ज़िंदगी जब से शनासा-ए-मुहालात हुई - रविश सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

ज़िंदगी जब से शनासा-ए-मुहालात हुई

ज़िंदगी जब से शनासा-ए-मुहालात हुई

सच तो ये है कि ख़ुद अपने से मुलाक़ात हुई

पर्दा-ए-ग़म जिसे समझा था वही ख़ामोशी

कल तिरी बज़्म में मौज़ू-ए-हकायात हुई

हम को ऐ क़ाफ़िला-ए-शौक़ ये क्या याद रहे

कि हुई सुब्ह कहाँ और कहाँ रात हुई

तिरी दुज़-दीदा-निगाही का ख़याल आते ही

दिल में इक रौशनी-ए-कश्फ़-ए-हिजाबात हुई

इस क़दर सहल कहाँ मरहला-ए-सोज़-ओ-गुदाज़

रात भर शम्अ का जलना भी कोई बात हुई

पास-ए-आदाब-ए-मोहब्बत कि ब-ईं राज़ ओ नियाज़

मुद्दतों बाद-ए-सबा से न कोई बात हुई

जिस की महफ़िल को 'रविश' जन्नत-ए-फ़र्दा कहिए

कल उसी ख़ुसरव-ए-ख़ूबाँ से मुलाक़ात हुई

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In Hindi By Famous Poet Ravish Siddiqi. is written by Ravish Siddiqi. Complete Poem in Hindi by Ravish Siddiqi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.