नक़ाब-ए-शब में छुप कर किस की याद आई समझते हैं
नक़ाब-ए-शब में छुप कर किस की याद आई समझते हैं
इशारे हम तिरे ऐ शम-ए-तन्हाई समझते हैं
न समझें बात वाइज़ की हम इतने भी नहीं नादाँ
कहाँ तक है बिसात-ए-अक़्ल-ओ-दानाई समझते हैं
तवज्जोह फिर तवज्जोह है मगर हम तेरे दीवाने
तग़ाफ़ुल को भी इक अंदाज़-ए-रानाई समझते हैं
हमें ना-आश्ना समझो न रस्म-ओ-राह-ए-मंज़िल से
कहाँ ले जा रहा है ज़ौक़-ए-रुस्वाई समझते हैं
हम ऐसे सर-फिरों को काम क्या है मर्ग ओ हस्ती से
ये सब है शोख़ी-ए-नाज़-ए-मसीहाई समझते हैं
हम ऐ ख़ल्वत-नशीं आख़िर में तेरे देखने वाले
ये क्यूँ है एहतिमाम-ए-महफ़िल-आराई समझते हैं
रिदा-ए-पाकी-ओ-तक़्वा की अज़्मत में तो क्या शक है
'रविश' हम तो ग़ुबार-ए-कू-ए-रुस्वाई समझते हैं
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