रब्त हो ग़ैर से अगर कुछ है
रब्त हो ग़ैर से अगर कुछ है
इस तरफ़ भी मगर नज़र कुछ है
बे-ख़बर है वो हर दो आलम से
जिस को उस शोख़ को ख़बर कुछ है
याँ कोई माजरा-शरीक नहीं
है अगर कुछ तो चश्म-ए-तर कुछ है
मिट गया क़िस्सा मर गया आशिक़
हो मुबारक तुम्हें ख़बर कुछ है
जुस्तुजू है वहीं वहीं है नज़र
जल्वा-रेज़ी जिधर जिधर कुछ है
है तमाशा ब-क़द्र-ए-ज़ौक़-ए-निगाह
देखता हूँ जिधर उधर कुछ है
बद बला है किसी किसी की नज़र
तुम न जाना कि बाम पर कुछ है
अज़्म सू-ए-अदम तो है 'रौनक़'
तोशा-ए-राह भी मगर कुछ है
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