है ज़ेर-ए-ज़मीं साया तो बाला-ए-ज़मीं धूप
है ज़ेर-ए-ज़मीं साया तो बाला-ए-ज़मीं धूप
दुनिया भी दो-रंगी है कहीं छाँव कहीं धूप
है नूर-ए-रुख़-ए-यार ज़माने में फ़िरोज़ाँ
कहते हैं ग़लत सब ये नहीं धूप नहीं धूप
इस तरह की ज़िद है उसे हर बात में मुझ से
कहता हूँ मैं साया तो वो कहता है नहीं धूप
अल्लाह-रे तिरे गर्मी-ए-आरिज़ की शरारत
ख़ुर्शीद छुपा शर्म से निकली न कहीं धूप
हम-पल्ला हुए यार की अफ़्शाँ से न 'रौनक़'
चमकी तो बहुत कुछ सिफ़त-ए-महर-ए-मुबीं धूप
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