रात की सारी हक़ीक़त दिन में उर्यां हो गई
रात की सारी हक़ीक़त दिन में उर्यां हो गई
ख़्वाब की ताबीर पढ़ कर आँख हैराँ हो गई
हर नफ़्स सैल-ए-हवादिस हर क़दम अमवाज-ए-ग़म
ज़िंदगी इस दौर में तूफ़ाँ ही तूफ़ाँ हो गई
आरज़ू-दर-आरज़ू बढ़ती गईं महरूमियाँ
हर तमन्ना रफ़्ता रफ़्ता दुश्मन-ए-जाँ हो गई
कितनी बे-मअ'नी रिफ़ाक़त अब्र के टुकड़ों में थी
देख कर मेरे घरौंदे बर्क़-ओ-बाराँ हो गई
वो तिरे बचपन की चिंगारी भी थी मौसम-शनास
जब जवाँ होने के दिन आए फ़रोज़ाँ हो गई
सोज़-ए-दिल दर्द-ए-जिगर ख़ून-ए-तमन्ना अश्क-ए-ग़म
एक लग़्ज़िश कितने अफ़्सानों का उनवाँ हो गई
(509) Peoples Rate This