दरवाज़ा मायूस है शायद सोग में है अँगनाई बहुत
दरवाज़ा मायूस है शायद सोग में है अँगनाई बहुत
इक मुद्दत पर अपने घर की आई तो याद आई बहुत
मैं क्या जानूँ भेद है कैसा पूछो घाट के पत्थर से
धीरे धीरे आख़िर कैसे जम जाती है काई बहुत
पूरब पच्छिम उत्तर दक्खिन हर जानिब है एक ही हाल
कोई भी मौसम हो ग़म की चलती है पुर्वाई बहुत
अंधे बहरे गूँगे साए ख़ाक मिरे काम आएँगे
आवाज़ों के इस जंगल में डसती है तन्हाई बहुत
कहती हैं कुछ और लकीरें लफ़्ज़ों का मफ़्हूम है और
चाहे जो भी नक़्श हो इस में होती है गहराई बहुत
प्यार शराफ़त हमदर्दी ईसार वफ़ा सच्चाई ख़ुलूस
'रौनक़' ये वो लफ़्ज़ हैं जिन से होती है रुस्वाई बहुत
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